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और हैं कितनी मंज़िलें बाक़ी | शाही शायरी
aur hain kitni manzilen baqi

ग़ज़ल

और हैं कितनी मंज़िलें बाक़ी

मुनीर नियाज़ी

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और हैं कितनी मंज़िलें बाक़ी
जान कितनी है जिस्म में बाक़ी

ज़िंदा लोगों की बूद-ओ-बाश में हैं
मुर्दा लोगों की आदतें बाक़ी

उस से मिलना वो ख़्वाब-ए-हस्ती में
ख़्वाब मादूम हसरतें बाक़ी

बह गए रंग-ओ-नूर के चश्मे
रह गईं उन की रंगतें बाक़ी

जिन के होने से हम भी हैं ऐ दिल
शहर में हैं वो सूरतें बाक़ी

वो तो आ के 'मुनीर' जा भी चुका
इक महक सी है बाग़ में बाक़ी