EN اردو
थके लोगों को मजबूरी में चलते देख लेता हूँ | शाही शायरी
thake logon ko majburi mein chalte dekh leta hun

ग़ज़ल

थके लोगों को मजबूरी में चलते देख लेता हूँ

मुनीर नियाज़ी

;

थके लोगों को मजबूरी में चलते देख लेता हूँ
मैं बस की खिड़कियों से ये तमाशे देख लेता हूँ

कभी दिल में उदासी हो तो उन में जा निकलता हूँ
पुराने दोस्तों को चुप से बैठे देख लेता हूँ

छुपाते हैं बहुत वो गर्मी-ए-दिल को मगर मैं भी
गुल-ए-रुख़ पर उड़ी रंगत के छींटे देख लेता हूँ

खड़ा हूँ यूँ किसी ख़ाली क़िले के सेहन-ए-वीराँ में
कि जैसे मैं ज़मीनों में दफ़ीने देख लेता हूँ

'मुनीर' अंदाज़ा-ए-क़ार-ए-फ़ना करना हो जब मुझ को
किसी ऊँची जगह से झुक के नीचे देख लेता हूँ