सुन बस्तियों का हाल जो हद से गुज़र गईं
उन उम्मतों का ज़िक्र जो रस्तों में मर गईं
कर याद उन दिनों को कि आबाद थीं यहाँ
गलियाँ जो ख़ाक ओ ख़ून की दहशत से भर गईं
सरसर की ज़द में आए हुए बाम-ओ-दर को देख
कैसी हवाएँ कैसा नगर सर्द कर गईं
क्या बाब थे यहाँ जो सदा से नहीं खुले
कैसी दुआएँ थीं जो यहाँ बे-असर गईं
तन्हा उजाड़ बुर्जों में फिरता है तू 'मुनीर'
वो ज़र-फ़िशानियाँ तिरे रुख़ की किधर गईं
ग़ज़ल
सुन बस्तियों का हाल जो हद से गुज़र गईं
मुनीर नियाज़ी