हम बहुत दूर निकल आए हैं चलते चलते
अब ठहर जाएँ कहीं शाम के ढलते ढलते
इक़बाल अज़ीम
तुम परिंदों से ज़ियादा तो नहीं हो आज़ाद
शाम होने को है अब घर की तरफ़ लौट चलो
इरफ़ान सिद्दीक़ी
उस की आँखों में उतर जाने को जी चाहता है
शाम होती है तो घर जाने को जी चाहता है
कफ़ील आज़र अमरोहवी
अब याद कभी आए तो आईने से पूछो
'महबूब-ख़िज़ाँ' शाम को घर क्यूँ नहीं जाते
महबूब ख़िज़ां
कौन समझे हम पे क्या गुज़री है 'नक़्श'
दिल लरज़ उठता है ज़िक्र-ए-शाम से
महेश चंद्र नक़्श
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दोस्तों से मुलाक़ात की शाम है
ये सज़ा काट कर अपने घर जाऊँगा
मज़हर इमाम
अब तो चुप-चाप शाम आती है
पहले चिड़ियों के शोर होते थे
मोहम्मद अल्वी