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शाम शायरी | शाही शायरी

शाम

33 शेर

शाम होते ही खुली सड़कों की याद आती है
सोचता रोज़ हूँ मैं घर से नहीं निकलूँगा

शहरयार




नई सुब्ह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है
ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे

शकील बदायुनी




यूँ तो हर शाम उमीदों में गुज़र जाती है
आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया

Every evening was, by hope, sustained
This evening's desperation makes me weep

शकील बदायुनी




मुझे हर शाम इक सुनसान जंगल खींच लेता है
और इस के बाद फिर ख़ूनी बलाएँ रक़्स करती हैं

शमीम रविश




अब उदास फिरते हो सर्दियों की शामों में
इस तरह तो होता है इस तरह के कामों में

शोएब बिन अज़ीज़