मुँह-ज़बानी क़ुरआन पढ़ते थे
पहले बच्चे भी कितने बूढ़े थे
इक परिंदा सुना रहा था ग़ज़ल
चार छे पेड़ मिल के सुनते थे
जिन को सोचा था और देखा भी
ऐसे दो-चार ही तो चेहरे थे
अब तो चुप-चाप शाम आती है
पहले चिड़ियों के शोर होते थे
रात उतरा था शाख़ पर इक गुल
चार-सू ख़ुशबुओं के पहरे थे
आज की सुब्ह कितनी हल्की है
याद पड़ता है रात रोए थे
ये कहाँ दोस्तों में आ बैठे
हम तो मरने को घर से निकले थे
ये भी दिन हैं कि आग गिरती है
वो भी दिन थे कि फूल बरसे थे
अब वो लड़की नज़र नहीं आती
हम जिसे रोज़ देख लेते थे
आँखें खोलीं तो कुछ न था 'अल्वी'
बंद आँखों में लाखों जल्वे थे
ग़ज़ल
मुँह-ज़बानी क़ुरआन पढ़ते थे
मोहम्मद अल्वी