जिस को निस्बत हो तुम्हारे नाम से
क्यूँ डरे वो गर्दिश-ए-अय्याम से
फिर कोई आवाज़ आई कान में
फिर खनक उट्ठे फ़ज़ा में जाम से
उन निगाहों को न जाने क्या हुआ
जिन में रक़्साँ थे नए पैग़ाम से
फिर किसी की बज़्म का आया ख़याल
फिर धुआँ उट्ठा दिल-ए-नाकाम से
कौन समझे हम पे क्या गुज़री है 'नक़्श'
दिल लरज़ उठता है ज़िक्र-ए-शाम से
ग़ज़ल
जिस को निस्बत हो तुम्हारे नाम से
महेश चंद्र नक़्श