इल्तिफ़ात-ए-यार था इक ख़्वाब-ए-आग़ाज़-ए-वफ़ा
सच हुआ करती हैं इन ख़्वाबों की ताबीरें कहीं
हसरत मोहानी
सिलसिला ख़्वाबों का सब यूँही धरा रह जाएगा
एक दिन बिस्तर पे कोई जागता रह जाएगा
हयात लखनवी
सुना है ख़्वाब मुकम्मल कभी नहीं होते
सुना है इश्क़ ख़ता है सो कर के देखते हैं
हुमैरा राहत
कैसा जादू है समझ आता नहीं
नींद मेरी ख़्वाब सारे आप के
इब्न-ए-मुफ़्ती
बस एक ख़्वाब की सूरत कहीं है घर मेरा
मकाँ के होते हुए ला-मकाँ के होते हुए
इफ़्तिख़ार आरिफ़
बेटियाँ बाप की आँखों में छुपे ख़्वाब को पहचानती हैं
और कोई दूसरा इस ख़्वाब को पढ़ ले तो बुरा मानती हैं
इफ़्तिख़ार आरिफ़
दिल कभी ख़्वाब के पीछे कभी दुनिया की तरफ़
एक ने अज्र दिया एक ने उजरत नहीं दी
इफ़्तिख़ार आरिफ़