दोस्त क्या ख़ुद को भी पुर्सिश की इजाज़त नहीं दी
दिल को ख़ूँ होने दिया आँख को ज़हमत नहीं दी
हम भी उस सिलसिला-ए-इश्क़ में बैअत हैं जिसे
हिज्र ने दुख न दिया वस्ल ने राहत नहीं दी
हम भी इक शाम बहुत उलझे हुए थे ख़ुद में
एक शाम उस को भी हालात ने मोहलत नहीं दी
आजिज़ी बख़्शी गई तमकनत-ए-फ़क़्र के साथ
देने वाले ने हमें कौन सी दौलत नहीं दी
बेवफ़ा दोस्त कभी लौट के आए तो उन्हें
हम ने इज़हार-ए-नदामत की अज़िय्यत नहीं दी
दिल कभी ख़्वाब के पीछे कभी दुनिया की तरफ़
एक ने अज्र दिया एक ने उजरत नहीं दी
ग़ज़ल
दोस्त क्या ख़ुद को भी पुर्सिश की इजाज़त नहीं दी
इफ़्तिख़ार आरिफ़