सिलसिला ख़्वाबों का सब यूँही धरा रह जाएगा
एक दिन बिस्तर पे कोई जागता रह जाएगा
एक ख़्वाहिश दिल को ग़ैर-आबाद करती जाएगी
इक परिंदा दूर तक उड़ता हुआ रह जाएगा
चार-सू फैली हुई बे-चेहरगी की धुँद में
एक दिन बे-अक्स हो कर आइना रह जाएगा
हर सदा से बच के वो एहसास-ए-तन्हाई में है
अपने ही दीवार-ओ-दर में गूँजता रह जाएगा
मुद्दआ हम अपना काग़ज़ पर रक़म कर जाएँगे
वक़्त के हाथों में अपना फ़ैस्ला रह जाएगा
दो घड़ी के वास्ते आ कर चले जाओगे तुम
फिर मिरी तन्हाइयों का सिलसिला रह जाएगा
अब दिलों में कोई गुंजाइश नहीं मिलती 'हयात'
बस किताबों में लिख्खा हर्फ़-ए-वफ़ा रह जाएगा
ग़ज़ल
सिलसिला ख़्वाबों का सब यूँही धरा रह जाएगा
हयात लखनवी