कल रात जगाती रही इक ख़्वाब की दूरी
और नींद बिछाती रही बिस्तर मिरे आगे
काशिफ़ हुसैन ग़ाएर
हाथ लगाते ही मिट्टी का ढेर हुए
कैसे कैसे रंग भरे थे ख़्वाबों में
ख़ावर एजाज़
ख़्वाब देखा था मोहब्बत का मोहब्बत की क़सम
फिर इसी ख़्वाब की ताबीर में मसरूफ़ था मैं
ख़ालिद मलिक साहिल
किसी ख़याल का कोई वजूद हो शायद
बदल रहा हूँ मैं ख़्वाबों को तजरबा कर के
ख़ालिद मलिक साहिल
कोई तो बात होगी कि करने पड़े हमें
अपने ही ख़्वाब अपने ही क़दमों से पाएमाल
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
नहीं अब कोई ख़्वाब ऐसा तिरी सूरत जो दिखलाए
बिछड़ कर तुझ से किस मंज़िल पर हम तन्हा चले आए
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
ख़ुदा करे कि खुले एक दिन ज़माने पर
मिरी कहानी में जो इस्तिआरा ख़्वाब का है
ख़ुर्शीद रब्बानी