देख ये दिल जो कभी हद से गुज़र जाता था
देख दरिया में कोई शोर न तुग़्यानी है
अकरम महमूद
दिल ख़ुश जो नहीं रहता तो इस का भी सबब है
मौजूद कोई वज्ह-ए-मसर्रत नहीं होती
अकरम महमूद
दो चार बरस जितने भी हैं जब्र ही सह लें
इस उम्र में अब हम से बग़ावत नहीं होती
अकरम महमूद
गुम तो होना था ब-हर-हाल किसी मंज़र में
दिल हुआ ख़्वाब में गुम आँख हुई आब में गुम
अकरम महमूद
हमेशा एक सी हालत पे कुछ नहीं रहता
जो आए हैं तो कड़े दिन गुज़र भी जाएँगे
अकरम महमूद
मकाँ की कोई ख़बर ला-मकाँ को कैसे हो
सफ़ीर-ए-रूह अभी जिस्म के हिसार में है
अकरम महमूद
मुझ पे आसाँ है कहे लफ़्ज़ का ईफ़ा करना
उस को मुश्किल है तो वो अपनी सुहूलत देखे
अकरम महमूद

