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कोई हुनर तो मिरी चश्म-ए-अश्क-बार में है | शाही शायरी
koi hunar to meri chashm-e-ashk-bar mein hai

ग़ज़ल

कोई हुनर तो मिरी चश्म-ए-अश्क-बार में है

अकरम महमूद

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कोई हुनर तो मिरी चश्म-ए-अश्क-बार में है
कि आज भी वो किसी ख़्वाब के ख़ुमार में है

किसी बहार का मंज़र है चश्म-ए-वीराँ में
किसी गुलाब की ख़ुशबू दिल-ए-फ़िगार में है

अजब तक़ाज़ा है मुझ से जुदा न होने का
कि जैसे कौन-ओ-मकाँ मेरे इख़्तियार में है

निशान-ए-राह भी ठहरेगा बारिशों के बा'द
अभी ये नक़्श किसी राह के ग़ुबार में है

उफ़ुक़ के अक्स किसी आइने में क्या सिमटीं
कि शौक़-ए-जल्वा अभी अपने इंतिशार में है

मकाँ की कोई ख़बर ला-मकाँ को कैसे हो
सफ़ीर-ए-रूह अभी जिस्म के हिसार में है

कमाल-ए-ज़ब्त की साअ'त कहीं गुज़र भी जा
सितारा-ए-शब-ए-ग़म मेरे इंतिज़ार में है