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आँख खुलने पे भी होता हूँ उसी ख़्वाब में गुम | शाही शायरी
aankh khulne pe bhi hota hun usi KHwab mein gum

ग़ज़ल

आँख खुलने पे भी होता हूँ उसी ख़्वाब में गुम

अकरम महमूद

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आँख खुलने पे भी होता हूँ उसी ख़्वाब में गुम
देर तक रहता हूँ इक लज़्ज़त-ए-नायाब में गुम

सोच ही सोच में तूफ़ान उठा देता हूँ
और हो जाता हूँ इक मौजा-ए-गिर्दाब में गुम

इक सितारा जो चमकता है लब-ए-बाम कहीं
देखते देखते हो जाता है महताब में गुम

बच रहे साँस तो जाना है उन्हीं गलियों में
और होना है उसी हल्क़ा-ए-अहबाब में गुम

ऐसे नश्शे से सिवा और नशा क्या होता
आप का ख़्वाब जो हो जाता मिरे ख़्वाब में गुम

सज्दा-ए-शौक़ के माथों से निशाँ मिटने लगे
हो गई रस्म-ए-अज़ाँ गुंबद-ओ-मेहराब में गुम

गुम तो होना था ब-हर-हाल किसी मंज़र में
दिल हुआ ख़्वाब में गुम आँख हुई आब में गुम