आँख खुलने पे भी होता हूँ उसी ख़्वाब में गुम
देर तक रहता हूँ इक लज़्ज़त-ए-नायाब में गुम
सोच ही सोच में तूफ़ान उठा देता हूँ
और हो जाता हूँ इक मौजा-ए-गिर्दाब में गुम
इक सितारा जो चमकता है लब-ए-बाम कहीं
देखते देखते हो जाता है महताब में गुम
बच रहे साँस तो जाना है उन्हीं गलियों में
और होना है उसी हल्क़ा-ए-अहबाब में गुम
ऐसे नश्शे से सिवा और नशा क्या होता
आप का ख़्वाब जो हो जाता मिरे ख़्वाब में गुम
सज्दा-ए-शौक़ के माथों से निशाँ मिटने लगे
हो गई रस्म-ए-अज़ाँ गुंबद-ओ-मेहराब में गुम
गुम तो होना था ब-हर-हाल किसी मंज़र में
दिल हुआ ख़्वाब में गुम आँख हुई आब में गुम
ग़ज़ल
आँख खुलने पे भी होता हूँ उसी ख़्वाब में गुम
अकरम महमूद