ज़ेहन में अजनबी सम्तों के हैं पैकर लेकिन
दिल के आईने में सब अक्स पुराने निकले
अकमल इमाम
ज़िंदगी के बहुत क़रीब न जा
फ़ासला कुछ तो अपने ध्यान में रख
अकमल इमाम
अब दर्द भी इक हद से गुज़रने नहीं पाता
अब हिज्र में वो पहली सी वहशत नहीं होती
अकरम महमूद
अब दिल भी दुखाओ तो अज़िय्यत नहीं होती
हैरत है किसी बात पे हैरत नहीं होती
अकरम महमूद
अजब तक़ाज़ा है मुझ से जुदा न होने का
कि जैसे कौन-ओ-मकाँ मेरे इख़्तियार में है
अकरम महमूद
बस इतना याद है इक भूल सी हुई थी कहीं
अब इस से बढ़ के दुखों का हिसाब क्या रखना
अकरम महमूद
चढ़े हुए हैं जो दरिया उतर भी जाएँगे
मिरे बग़ैर तिरे दिन गुज़र भी जाएँगे
अकरम महमूद