वक़्त अब दस्तरस में है 'अख़्तर'
अब तो मैं जिस जहान तक हो आऊँ
अख़्तर उस्मान
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ये काएनात मिरे सामने है मिस्ल-ए-बिसात
कहीं जुनूँ में उलट दूँ न इस जहान को मैं
अख़्तर उस्मान
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आस डूबी तो दिल हुआ रौशन
बुझ गया दिल तो दिल के दाग़ जले
अख़्तर ज़ियाई
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भुला चुके हैं ज़मीन ओ ज़माँ के सब क़िस्से
सुख़न-तराज़ हैं लेकिन ख़ला में रहते हैं
अख़्तर ज़ियाई
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दफ़अतन आँधियों ने रुख़ बदला
ना-गहाँ आरज़ू के बाग़ जले
अख़्तर ज़ियाई
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कोई इलाज-ए-ग़म-ए-ज़िंदगी बता वाइज़
सुने हुए जो फ़साने हैं फिर सुना न मुझे
अख़्तर ज़ियाई
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आरज़ू टीस कर्ब तन्हाई
ख़ुद में कितना सिमट गया हूँ मैं
अकमल इमाम
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