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चढ़े हुए हैं जो दरिया उतर भी जाएँगे | शाही शायरी
chaDhe hue hain jo dariya utar bhi jaenge

ग़ज़ल

चढ़े हुए हैं जो दरिया उतर भी जाएँगे

अकरम महमूद

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चढ़े हुए हैं जो दरिया उतर भी जाएँगे
मिरे बग़ैर तिरे दिन गुज़र भी जाएँगे

उड़ा रही हैं हवाएँ पराए सेहनों में
ढलेगी रात तो हम अपने घर भी जाएँगे

जो रो रही है यही आँख हँस रही होगी
तिरे दयार में बार-ए-दिगर भी जाएँगे

तलाश ख़ुद को कहीं ख़ाक-ओ-आब में कर लें
तुम्हारे खोज में फिर दर-ब-दर भी जाएँगे

हमेशा एक सी हालत पे कुछ नहीं रहता
जो आए हैं तो कड़े दिन गुज़र भी जाएँगे

ये फूल फूल किसी ख़ुशनुमा की तहरीरें
ये लफ़्ज़ मअ'नों से अपने मुकर भी जाएँगे