जी लगा रक्खा है यूँ ताबीर के औहाम से
ज़िंदगी क्या है मियाँ बस एक घर ख़्वाबों का है
ऐन ताबिश
मैं अपना कार-ए-वफ़ा आज़माऊँगा फिर भी
कहाँ मैं तेरे सितम याद करने वाला हूँ
ऐन ताबिश
मैं उस घड़ी अपने आप का सामना भी करने से भागता हूँ
वो ज़ीना ज़ीना उतरने वाली शबीह जब मुझ में जागती है
ऐन ताबिश
रोज़ इक मर्ग का आलम भी गुज़रता है यहाँ
रोज़ जीने के भी सामान निकल आते हैं
ऐन ताबिश
तू जो इस दुनिया की ख़ातिर अपना-आप गँवाता है
ऐ दिल-ए-मन ऐ मेरे मुसाफ़िर काम है ये नादानों का
ऐन ताबिश
अंजान अगर हो तो गुज़र क्यूँ नहीं जाते
पहचान रहे हो तो ठहर क्यूँ नहीं जाते
ऐश बर्नी
ऐ शम्अ सुब्ह होती है रोती है किस लिए
थोड़ी सी रह गई है इसे भी गुज़ार दे
ऐश देहलवी