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रोया न हूँ जहाँ में गरेबाँ को अपने फाड़ | शाही शायरी
roya na hun jahan mein gareban ko apne phaD

ग़ज़ल

रोया न हूँ जहाँ में गरेबाँ को अपने फाड़

ताबाँ अब्दुल हई

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रोया न हूँ जहाँ में गरेबाँ को अपने फाड़
ऐसा न कोई दश्त है ज़ालिम न कुइ उजाड़

आता है मोहतसिब प-ए-ताज़ीर मय-कशो
पगड़ी को उस की फेंक दो दाढ़ी को लो उखाड़

साबित था जब तलक ये गरेबाँ ख़फ़ा था मैं
करते ही चाक खुल गए छाती के सब किवाड़

मेरे ग़ुबार ने तो तिरे दिल में की है जा
गो मेरी मुश्त-ए-ख़ाक से दामन की तईं तू झाड़

'ताबाँ' ज़ि-बस हवा-ए-जुनूँ सर में है मिरे
अब मैं हूँ और दश्त है ये सर है और पहाड़