EN اردو
ऐ मर्द-ए-ख़ुदा हो तू परस्तार बुताँ का | शाही शायरी
ai mard-e-KHuda ho tu parastar butan ka

ग़ज़ल

ऐ मर्द-ए-ख़ुदा हो तू परस्तार बुताँ का

ताबाँ अब्दुल हई

;

ऐ मर्द-ए-ख़ुदा हो तू परस्तार बुताँ का
मज़हब में मिरे कुफ़्र है इंकार बुताँ का

लगती वो तजल्ली शरर-ए-संग के मानिंद
मूसी तू अगर देखता दीदार बुताँ का

गर्दन में मिरे तौक़ है ज़ुन्नार के मानिंद
हूँ इश्क़ में अज़-बस-कि गुनहगार बुताँ का

दोनों की टुक इक सैर कर इंसाफ़ से ऐ शैख़
काबे से तिरे गर्म है बाज़ार बुताँ का

दूँ सारी ख़ुदाई को एवज़ उन के मैं 'ताबाँ'
कोई मुझ सा बता दे तू ख़रीदार बुताँ का