ऐ मर्द-ए-ख़ुदा हो तू परस्तार बुताँ का
मज़हब में मिरे कुफ़्र है इंकार बुताँ का
लगती वो तजल्ली शरर-ए-संग के मानिंद
मूसी तू अगर देखता दीदार बुताँ का
गर्दन में मिरे तौक़ है ज़ुन्नार के मानिंद
हूँ इश्क़ में अज़-बस-कि गुनहगार बुताँ का
दोनों की टुक इक सैर कर इंसाफ़ से ऐ शैख़
काबे से तिरे गर्म है बाज़ार बुताँ का
दूँ सारी ख़ुदाई को एवज़ उन के मैं 'ताबाँ'
कोई मुझ सा बता दे तू ख़रीदार बुताँ का
ग़ज़ल
ऐ मर्द-ए-ख़ुदा हो तू परस्तार बुताँ का
ताबाँ अब्दुल हई