जब से तुम्हारी आँखें आलम को भाइयाँ हैं
तब से जहाँ में तुम ने धूमें मचाइयाँ हैं
जौर-ओ-जफ़ा ओ मेहनत मेहर-ओ-वफ़ा-ओ-उल्फ़त
तुम क्यूँ बढ़ाइयाँ हैं और क्यूँ घटाइयाँ हैं
मिल मिल के रूठ जाना और रूठ रूठ मिलना
ये क्या ख़राबियाँ हैं क्या जग-हँसाइयाँ हैं
टुक टुक सरक सरक कर आ बैठना बग़ल में
क्या अचपलाइयाँ हैं और क्या ढिटाइयाँ हैं
ज़ुल्फ़ों का बिल बनाते आँखें चुरा के चलना
क्या कम-निगाहियाँ हैं क्या कज-अदाइयाँ हैं
आईना रू-ब-रू रख और अपनी सज बनाना
क्या ख़ुद-पसंदियाँ हैं क्या ख़ुद-नुमाईयाँ हैं
आँचल उठा के तुम ने जो ढाँक लीं ये छतियाँ
किस को दिखाइयाँ हैं किस से छुपाइयाँ हैं
तुम में जो शोख़ियाँ हैं और चन्चलाइयाँ हैं
किन ने सिखाइयाँ हैं किन ने बताइयाँ हैं
'हातिम' के बिन इशारा सच कह ये चश्म-ओ-अबरू
किस से लड़ाइयाँ हैं किस पर चढ़ाइयाँ हैं
ग़ज़ल
जब से तुम्हारी आँखें आलम को भाइयाँ हैं
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम