ग़ैर के हाथ में उस शोख़ का दामान है आज
मैं हूँ और हाथ मिरा और ये गरेबान है आज
लटपटी चाल खुले बाल ख़ुमारी अँखियाँ
मैं तसद्दुक़ हूँ मिरी जान ये क्या आन है आज
कब तलक रहिए तिरे हिज्र में पाबंद-ए-लिबास
कीजिए तर्क-ए-तअल्लुक़ ही ये अरमान है आज
आइने को तिरी सूरत से न हो क्यूँ कर हैरत
दर ओ दीवार तुझे देख के हैरान है आज
आशियाँ बाग़ में आबाद था कल बुलबुल का
हाए 'ताबाँ' ये सबब क्या है कि वीरान है आज
ग़ज़ल
ग़ैर के हाथ में उस शोख़ का दामान है आज
ताबाँ अब्दुल हई