तुम्हारे हिज्र में रहता है हम को ग़म मियाँ-साहिब
ख़ुदा जाने जिएँगे या मरेंगे हम मियाँ-साहिब
अगर बोसा न देना था कहा होता नहीं देता
तुम इतनी बात से होते हो क्या बरहम मियाँ-साहिब
ख़ता कुछ हम ने की या ग़ैर है शायद तुम्हें माने
सबब क्या है कि तुम आते हो अब कुछ कम मियाँ-साहिब
अगर तू शोहरा-ए-आफ़ाक़ है तो तेरे बंदों में
हमें भी जानता है ख़ूब इक आलम मियाँ-साहिब
तुम्हारे इश्क़ से 'ताबाँ' हुआ है शहर में रुस्वा
तुम उस के हाल से अब तक नहीं महरम मियाँ-साहिब
ग़ज़ल
तुम्हारे हिज्र में रहता है हम को ग़म मियाँ-साहिब
ताबाँ अब्दुल हई