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साबिर ज़फ़र शायरी | शाही शायरी

साबिर ज़फ़र शेर

47 शेर

ऐ काश ख़ुद सुकूत भी मुझ से हो हम-कलाम
मैं ख़ामुशी-ज़दा हूँ सदा चाहिए मुझे

साबिर ज़फ़र




कहती है ये शाम की नर्म हवा फिर महकेगी इस घर की फ़ज़ा
नया कमरा सजा नई शम्अ जला तिरे चाहने वाले और भी हैं

साबिर ज़फ़र




कैसे करें बंदगी 'ज़फ़र' वाँ
बंदों की जहाँ ख़ुदाइयाँ हैं

साबिर ज़फ़र




ख़िज़ाँ की रुत है जनम-दिन है और धुआँ और फूल
हवा बिखेर गई मोम-बत्तियाँ और फूल

साबिर ज़फ़र




किसी ख़याल की सरशारी में जारी-ओ-सारी यारी में
अपने-आप कोई आएगा और बन जाएगा मेहमान

साबिर ज़फ़र




किसी ज़िंदाँ में सोचना है अबस
दहर हम में है या कि दहर में हम

साबिर ज़फ़र




कितनी बे-सूद जुदाई है कि दुख भी न मिला
कोई धोका ही वो देता कि मैं पछता सकता

साबिर ज़फ़र




कुछ बे-ठिकाना करती रहीं हिजरतें मुदाम
कुछ मेरी वहशतों ने मुझे दर-ब-दर किया

साबिर ज़फ़र




मैं ऐसे जमघटे में खो गया हूँ
जहाँ मेरे सिवा कोई नहीं है

साबिर ज़फ़र