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क़िस्मत में अगर जुदाइयाँ हैं | शाही शायरी
qismat mein agar judaiyan hain

ग़ज़ल

क़िस्मत में अगर जुदाइयाँ हैं

साबिर ज़फ़र

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क़िस्मत में अगर जुदाइयाँ हैं
फिर क्यूँ तिरी यादें आइयाँ हैं

याँ जीने की सूरतें हैं जितनी
वो सूरतें सब पराइयाँ हैं

फ़रियाद-कुनाँ नहीं बस इक मैं
चारों ही तरफ़ दुहाइयां हैं

हर दर्जे पे इश्क़ कर के देखा
हर दर्जे में बेवफ़ाइयाँ हैं

इक तेरा बुरा कभी न चाहा
गो हम में बहुत बुराइयाँ हैं

तक़रीब-ए-विसाल-ए-यार है क्या
कूचे में तिरे सफ़ाइयाँ हैं

उस ने भी कसर कोई कोई छोड़ी
हम ने भी बहुत सुनाइयाँ हैं

अब और कहीं का रुख़ करें आप
इस जग में तो जग-हँसाइयाँ हैं

कैसे करें बंदगी 'ज़फ़र' वाँ
बंदों की जहाँ ख़ुदाइयाँ हैं