नज़र आते नहीं हैं बहर में हम
या'नी रहते हैं अपनी लहर में हम
खुल रहे हैं बंधे हुए पुल से
घुल रहे हैं ख़ुद अपने ज़हर में हम
है क़फ़स भी तिलिस्म-ख़ाना-ए-ख़्वाब
आ गए एक और शहर में हम
किसी ज़िंदाँ में सोचना है अबस
दहर हम में है या कि दहर में हम
हो गई रात सो लें कुछ सरदार
जाग उट्ठेंगे पिछले पहर में हम
हम हैं मक़्तल में और क़ातिल ग़म
कैसे लाए गए थे क़हर में हम
अब जगाएगी याद उस की 'ज़फ़र'
छोड़ आए जो नींद नहर में हम
ग़ज़ल
नज़र आते नहीं हैं बहर में हम
साबिर ज़फ़र