नए कपड़े बदल और बाल बना तिरे चाहने वाले और भी हैं
कोई छोड़ गया ये शहर तो क्या तिरे चाहने वाले और भी हैं
कई पलकें हैं और पेड़ कई महफ़ूज़ है ठंडक जिन की अभी
कहीं दूर न जा मत ख़ाक उड़ा तिरे चाहने वाले और भी हैं
कहती है ये शाम की नर्म हवा फिर महकेगी इस घर की फ़ज़ा
नया कमरा सजा नई शम्अ' जला तिरे चाहने वाले और भी हैं
कई फूलों जैसे लोग भी हैं इन्ही ऐसे-वैसे लोगों में
तू ग़ैरों के मत नाज़ उठा तिरे चाहने वाले और भी हैं
बेचैन है क्यूँ ऐ 'नासिर' तू बेहाल है किस की ख़ातिर तू
पलकें तो उठा चेहरा तो दिखा तिरे चाहने वाले और भी हैं
ग़ज़ल
नए कपड़े बदल और बाल बना तिरे चाहने वाले और भी हैं
साबिर ज़फ़र