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जीने का दरस सब से जुदा चाहिए मुझे | शाही शायरी
jine ka daras sab se juda chahiye mujhe

ग़ज़ल

जीने का दरस सब से जुदा चाहिए मुझे

साबिर ज़फ़र

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जीने का दरस सब से जुदा चाहिए मुझे
अब तो निसाब-ए-ज़ीस्त नया चाहिए मुझे

ऐ काश ख़ुद सुकूत भी मुझ से हो हम-कलाम
मैं ख़ामुशी-ज़दा हूँ सदा चाहिए मुझे

अब मेरे पास जुरअत-ए-इज़हार भी नहीं
कैसे बताऊँ आप को क्या चाहिए मुझे

सब खिड़कियाँ खुली हैं मगर हब्स है बहुत
जाँ लब पे आ चुकी है हवा चाहिए मुझे