वो लोग आज ख़ुद इक दास्ताँ का हिस्सा हैं
जिन्हें अज़ीज़ थे क़िस्से कहानियाँ और फूल
साबिर ज़फ़र
यहाँ है धूप वहाँ साए हैं चले जाओ
ये लोग लेने तुम्हें आए हैं चले जाओ
साबिर ज़फ़र
ये इब्तिदा थी कि मैं ने उसे पुकारा था
वो आ गया था 'ज़फ़र' उस ने इंतिहा की थी
साबिर ज़फ़र
ये ज़ख़्म-ए-इश्क़ है कोशिश करो हरा ही रहे
कसक तो जा न सकेगी अगर ये भर भी गया
साबिर ज़फ़र
'ज़फ़र' है बेहतरी इस में कि मैं ख़मोश रहूँ
खुले ज़बान तो इज़्ज़त किसी की क्या रह जाए
साबिर ज़फ़र
'ज़फ़र' वहाँ कि जहाँ हो कोई भी हद क़ाएम
फ़क़त बशर नहीं होता ख़ुदा भी होता है
साबिर ज़फ़र
इलाज-ए-अहल-ए-सितम चाहिए अभी से 'ज़फ़र'
अभी तो संग ज़रा फ़ासले पे गिरते हैं
साबिर ज़फ़र
अजब इक बे-यक़ीनी की फ़ज़ा है
यहाँ होना न होना एक सा है
साबिर ज़फ़र
अपनी यादें उस से वापस माँग कर
मैं ने अपने-आप को यकजा किया
साबिर ज़फ़र