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इरफ़ान सिद्दीक़ी शायरी | शाही शायरी

इरफ़ान सिद्दीक़ी शेर

79 शेर

बदन में जैसे लहू ताज़ियाना हो गया है
उसे गले से लगाए ज़माना हो गया है

इरफ़ान सिद्दीक़ी




आज तक उन की ख़ुदाई से है इंकार मुझे
मैं तो इक उम्र से काफ़िर हूँ सनम जानते हैं

इरफ़ान सिद्दीक़ी




अपने किस काम में लाएगा बताता भी नहीं
हम को औरों पे गँवाना भी नहीं चाहता है

इरफ़ान सिद्दीक़ी




अपने चारों सम्त दीवारें उठाना रात दिन
रात दिन फिर सारी दीवारों में दर करना मुझे

इरफ़ान सिद्दीक़ी




अजनबी जान के क्या नाम-ओ-निशाँ पूछते हो
भाई हम भी उसी बस्ती के निकाले हुए हैं

इरफ़ान सिद्दीक़ी




अजब हरीफ़ था मेरे ही साथ डूब गया
मिरे सफ़ीने को ग़र्क़ाब देखने के लिए

इरफ़ान सिद्दीक़ी




ऐ परिंदो याद करती है तुम्हें पागल हवा
रोज़ इक नौहा सर-ए-शाख़ शजर सुनता हूँ मैं

इरफ़ान सिद्दीक़ी




ऐ लहू मैं तुझे मक़्तल से कहाँ ले जाऊँ
अपने मंज़र ही में हर रंग भला लगता है

इरफ़ान सिद्दीक़ी




अभी से रास्ता क्यूँ रोकने लगी दुनिया
खड़े हुए हैं अभी अपने रू-ब-रू हम लोग

इरफ़ान सिद्दीक़ी