शोला-ए-इश्क़ बुझाना भी नहीं चाहता है
वो मगर ख़ुद को जलाना भी नहीं चाहता है
उस को मंज़ूर नहीं है मिरी गुमराही भी
और मुझे राह पे लाना भी नहीं चाहता है
जब से जाना है कि मैं जान समझता हूँ उसे
वो हिरन छोड़ के जाना भी नहीं चाहता है
सैर भी जिस्म के सहरा की ख़ुश आती है मगर
देर तक ख़ाक उड़ाना भी नहीं चाहता है
कैसे उस शख़्स से ताबीर पे इसरार करें
जो हमें ख़्वाब दिखाना भी नहीं चाहता है
अपने किस काम में लाएगा बताता भी नहीं
हम को औरों पे गँवाना भी नहीं चाहता है
मेरे लफ़्ज़ों में भी छुपता नहीं पैकर उस का
दिल मगर नाम बताना भी नहीं चाहता है
ग़ज़ल
शोला-ए-इश्क़ बुझाना भी नहीं चाहता है
इरफ़ान सिद्दीक़ी