बदन में जैसे लहू ताज़ियाना हो गया है
उसे गले से लगाए ज़माना हो गया है
चमक रहा है उफ़ुक़ तक ग़ुबार-ए-तीरा-शबी
कोई चराग़ सफ़र पर रवाना हो गया है
हमें तो ख़ैर बिखरना ही था कभी न कभी
हवा-ए-ताज़ा का झोंका बहाना हो गया है
ग़रज़ कि पूछते क्या हो मआल-ए-सोख़्तगाँ
तमाम जलना जलाना फ़साना हो गया है
फ़ज़ा-ए-शौक़ में उस की बिसात ही क्या थी
परिंद अपने परों का निशाना हो गया है
किसी ने देखे हैं पतझड़ में फूल खिलते हुए
दिल अपनी ख़ुश-नज़री में दिवाना हो गया है
ग़ज़ल
बदन में जैसे लहू ताज़ियाना हो गया है
इरफ़ान सिद्दीक़ी