उठा लाया हूँ सारे ख़्वाब अपने
तिरी यादों के बोसीदा मकाँ से
रसा चुग़ताई
मय-ख़ाने में क्यूँ याद-ए-ख़ुदा होती है अक्सर
मस्जिद में तो ज़िक्र-ए-मय-ओ-मीना नहीं होता
रियाज़ ख़ैराबादी
हम तो समझे थे कि हम भूल गए हैं उन को
क्या हुआ आज ये किस बात पे रोना आया
साहिर लुधियानवी
यूँही दिल ने चाहा था रोना-रुलाना
तिरी याद तो बन गई इक बहाना
साहिर लुधियानवी
याद का ज़ख़्म भी हम तुझ को नहीं दे सकते
देख किस आलम-ए-ग़ुर्बत में मिले हैं तुझ से
सलीम कौसर
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इक वही शख़्स मुझ को याद रहा
जिस को समझा था भूल जाऊँगा
सलमान अख़्तर
इक याद की मौजूदगी सह भी नहीं सकते
ये बात किसी और से कह भी नहीं सकते
साक़ी फ़ारुक़ी
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