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इक याद की मौजूदगी सह भी नहीं सकते | शाही शायरी
ek yaad ki maujudgi sah bhi nahin sakte

ग़ज़ल

इक याद की मौजूदगी सह भी नहीं सकते

साक़ी फ़ारुक़ी

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इक याद की मौजूदगी सह भी नहीं सकते
ये बात किसी और से कह भी नहीं सकते

तू अपने गहन में है तो मैं अपने गहन में
दो चाँद हैं इक अब्र में गह भी नहीं सकते

हम-जिस्म हैं और दोनों की बुनियादें अमर हैं
अब कैसे बिछड़ जाएँ कि ढह भी नहीं सकते

दरिया हूँ किसी रोज़ मुआविन की तरह मिल
ये क्या कि हम इक लहर में बह भी नहीं सकते

ख़्वाब आएँ कहाँ से अगर आँखें हों पुरानी
और सुब्ह तक इस ख़ौफ़ में रह भी नहीं सकते