मिरे अतराफ़ ये कैसी सदाएँ रक़्स करती हैं
कि यूँ लगता है मुझ में अप्सराएँ रक़्स करती हैं
इसी उम्मीद पर शायद कभी ख़ुश्बू कोई उतरे
मिरी यादों के आँगन में हवाएँ रक़्स करती हैं
मयस्सर ही नहीं आती मुझे इक पल भी तन्हाई
कि मुझ में ख़्वाहिशों की ख़ादमाएँ रक़्स करती हैं
मुझे हर शाम इक सुनसान जंगल खींच लेता है
और इस के बाद फिर ख़ूनी बलाएँ रक़्स करती हैं
कभी देखा है तुम ने शाम का मंज़र जब आँखों में
सितारे टूटते हैं और घटाएँ रक़्स करती हैं
किसी की चाह में कोई 'रविश' जब जान देता है
ज़मीं से आसमाँ तक आत्माएँ रक़्स करती हैं
ग़ज़ल
मिरे अतराफ़ ये कैसी सदाएँ रक़्स करती हैं
शमीम रविश