आई होगी किसी को हिज्र में मौत
मुझ को तो नींद भी नहीं आती
अकबर इलाहाबादी
बूढ़ों के साथ लोग कहाँ तक वफ़ा करें
बूढ़ों को भी जो मौत न आए तो क्या करें
अकबर इलाहाबादी
ऐ अजल कुछ ज़िंदगी का हक़ भी है
ज़िंदगी तेरी अमानत ही सही
अकबर हैदरी
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छोड़ के माल-ओ-दौलत सारी दुनिया में अपनी
ख़ाली हाथ गुज़र जाते हैं कैसे कैसे लोग
अकबर हैदराबादी
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अब नहीं लौट के आने वाला
घर खुला छोड़ के जाने वाला
अख़्तर नज़्मी
कौन जीने के लिए मरता रहे
लो सँभालो अपनी दुनिया हम चले
अख़्तर सईद ख़ान
वो अगर आ न सके मौत ही आई होती
हिज्र में कोई तो ग़म-ख़्वार हमारा होता
अख़्तर शीरानी