हुए नामवर बे-निशाँ कैसे कैसे
ज़मीं खा गई आसमाँ कैसे कैसे
अमीर मीनाई
पुतलियाँ तक भी तो फिर जाती हैं देखो दम-ए-नज़अ
वक़्त पड़ता है तो सब आँख चुरा जाते हैं
अमीर मीनाई
मौत ही इंसान की दुश्मन नहीं
ज़िंदगी भी जान ले कर जाएगी
अर्श मलसियानी
ज़िंदगी की बिसात पर 'बाक़ी'
मौत की एक चाल हैं हम लोग
बाक़ी सिद्दीक़ी
रोने वालों ने उठा रक्खा था घर सर पर मगर
उम्र भर का जागने वाला पड़ा सोता रहा
बशीर बद्र
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वो जिन के ज़िक्र से रगों में दौड़ती थीं बिजलियाँ
उन्हीं का हाथ हम ने छू के देखा कितना सर्द है
बशीर बद्र
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बंधन सा इक बँधा था रग-ओ-पय से जिस्म में
मरने के ब'अद हाथ से मोती बिखर गए
बशीरुद्दीन अहमद देहलवी