ज़िंदगी ख़्वाब देखती है मगर
ज़िंदगी ज़िंदगी है ख़्वाब नहीं
मक़बूल नक़्श
हैं तसव्वुर में उस के आँखें बंद
लोग जानें हैं ख़्वाब करता हूँ
मीर मोहम्मदी बेदार
लेते ही नाम उस का सोते से चौंक उठ्ठे
है ख़ैर 'मीर'-साहिब कुछ तुम ने ख़्वाब देखा
मीर तक़ी मीर
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आँखें खोलो ख़्वाब समेटो जागो भी
'अल्वी' प्यारे देखो साला दिन निकला
मोहम्मद अल्वी
अब जुदाई के सफ़र को मिरे आसान करो
तुम मुझे ख़्वाब में आ कर न परेशान करो
मुनव्वर राना
ख़्वाब होते हैं देखने के लिए
उन में जा कर मगर रहा न करो
मुनीर नियाज़ी
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ऐसा भी कभी हो मैं जिसे ख़्वाब में देखूँ
जागूँ तो वही ख़्वाब की ताबीर बताए
मुस्तफ़ा शहाब
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