मोहब्बत की तो कोई हद, कोई सरहद नहीं होती
हमारे दरमियाँ ये फ़ासले, कैसे निकल आए
ख़ालिद मोईन
होती नहीं है यूँही अदा ये नमाज़-ए-इश्क़
याँ शर्त है कि अपने लहू से वज़ू करो
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
सुना रहा हूँ उन्हें झूट-मूट इक क़िस्सा
कि एक शख़्स मोहब्बत में कामयाब रहा
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
मोहब्बत ज़ुल्फ़ का आसेब जादू है निगाहों का
मोहब्बत फ़ित्ना-ए-महशर बला-ए-ना-गहानी है
ख़ार देहलवी
भूले हैं रफ़्ता रफ़्ता उन्हें मुद्दतों में हम
क़िस्तों में ख़ुद-कुशी का मज़ा हम से पूछिए
ख़ुमार बाराबंकवी
ये कहना था उन से मोहब्बत है मुझ को
ये कहने में मुझ को ज़माने लगे हैं
ख़ुमार बाराबंकवी
ये वफ़ा की सख़्त राहें ये तुम्हारे पाँव नाज़ुक
न लो इंतिक़ाम मुझ से मिरे साथ साथ चल के
your feet are tender, delicate, harsh are the paths of constancy
on me your vengeance do not wreak, by thus giving me company
ख़ुमार बाराबंकवी