हज़ार तरह से गर्दिश में आफ़्ताब रहा
निगाह-ए-नाज़ का लेकिन कहाँ जवाब रहा
वो आ गए हैं तो अब छोड़ो इस फ़साने को
कहाँ कहाँ मैं फिरा किस तरह ख़राब रहा
सुना रहा हूँ उन्हें झूट-मूट इक क़िस्सा
कि एक शख़्स मोहब्बत में कामयाब रहा
अगरचे और भी फ़ित्ने उठे क़यामत के
तिरा शबाब ही आलम में इंतिख़ाब रहा
रह-ए-हयात में हम चाक-ए-दिल से देखेंगे
जहाँ जहाँ भी रुख़-ए-दहर पर नक़ाब रहा
ग़ज़ल
हज़ार तरह से गर्दिश में आफ़्ताब रहा
ख़लील-उर-रहमान आज़मी