सुनो! अब हम मोहब्बत में बहुत आगे निकल आए
कि इक रस्ते पे चलते चलते सौ रस्ते निकल आए
अगरचे कम न थी, चारागरान-ए-शहर की पुर्सिश
मगर! कुछ ज़ख़्म-ए-ना-दीदा बहुत गहरे निकल आए
मोहब्बत की तो कोई हद, कोई सरहद नहीं होती
हमारे दरमियाँ ये फ़ासले, कैसे निकल आए
बहुत दिन तक हिसार-ए-नश्शा यकताई में रक्खा
फिर इस चेहरे के अंदर भी कई चेहरे निकल आए
पुराने ज़ख़्म भरते ही, नए ज़ख़्मों के शैदाई
मिज़ाज-ए-आइना ओढ़े हुए घर से निकल आए
तज़ाद-ए-ज़ात के बाइस खुला वो कम-सुख़न ऐसा
अधूरी बात के मफ़्हूम भी पूरे निकल आए
ग़ज़ल
सुनो! अब हम मोहब्बत में बहुत आगे निकल आए
ख़ालिद मोईन