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मोनिस-ए-दिल कोई नग़्मा कोई तहरीर नहीं | शाही शायरी
monis-e-dil koi naghma koi tahrir nahin

ग़ज़ल

मोनिस-ए-दिल कोई नग़्मा कोई तहरीर नहीं

अहमद मुश्ताक़

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मोनिस-ए-दिल कोई नग़्मा कोई तहरीर नहीं
हर्फ़ में रस नहीं आवाज़ में तासीर नहीं

आ ही जाता है उजड़ती हुई दुनिया का ख़याल
बावर आया कि तिरा दर्द हमा-गीर नहीं

हिज्र इक वक़्फ़ा-ए-बेदार है दो नींदों में
वस्ल इक ख़्वाब है जिस की कोई ता'बीर नहीं

मेरे अतराफ़ ये ज़ंजीर-ए-अलाएक़ कैसी
ज़िंदगी जुर्म सही क़ाबिल-ए-ताज़ीर नहीं

किस तरह पाएँ इस अफ़्सुर्दा-मिज़ाजी से नजात
हमदमो हम-सुख़नो क्या कोई तदबीर नहीं