मोनिस-ए-दिल कोई नग़्मा कोई तहरीर नहीं
हर्फ़ में रस नहीं आवाज़ में तासीर नहीं
आ ही जाता है उजड़ती हुई दुनिया का ख़याल
बावर आया कि तिरा दर्द हमा-गीर नहीं
हिज्र इक वक़्फ़ा-ए-बेदार है दो नींदों में
वस्ल इक ख़्वाब है जिस की कोई ता'बीर नहीं
मेरे अतराफ़ ये ज़ंजीर-ए-अलाएक़ कैसी
ज़िंदगी जुर्म सही क़ाबिल-ए-ताज़ीर नहीं
किस तरह पाएँ इस अफ़्सुर्दा-मिज़ाजी से नजात
हमदमो हम-सुख़नो क्या कोई तदबीर नहीं
ग़ज़ल
मोनिस-ए-दिल कोई नग़्मा कोई तहरीर नहीं
अहमद मुश्ताक़