इश्क़ में तहज़ीब के हैं और ही कुछ फ़लसफ़े
तुझ से हो कर हम ख़फ़ा ख़ुद से ख़फ़ा रहने लगे
आलम ख़ुर्शीद
कभी कभी कितना नुक़सान उठाना पड़ता है
ऐरों ग़ैरों का एहसान उठाना पड़ता है
आलम ख़ुर्शीद
किसी के रस्ते पे कैसे नज़रें जमाए रक्खूँ
अभी तो करना मुझे है ख़ुद इंतिज़ार मेरा
आलम ख़ुर्शीद
किसी को ढूँडते हैं हम किसी के पैकर में
किसी का चेहरा किसी से मिलाते रहते हैं
आलम ख़ुर्शीद
कोई सूरत भी नहीं मिलती किसी सूरत में
कूज़ा-गर कैसा करिश्मा तिरे इस चाक में है
आलम ख़ुर्शीद
कुछ रस्ते मुश्किल ही अच्छे लगते हैं
कुछ रस्तों को हम आसान नहीं करते
आलम ख़ुर्शीद
लकीर खींच के बैठी है तिश्नगी मिरी
बस एक ज़िद है कि दरिया यहीं पे आएगा
आलम ख़ुर्शीद

