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कभी कभी कितना नुक़सान उठाना पड़ता है | शाही शायरी
kabhi kabhi kitna nuqsan uThana paDta hai

ग़ज़ल

कभी कभी कितना नुक़सान उठाना पड़ता है

आलम ख़ुर्शीद

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कभी कभी कितना नुक़सान उठाना पड़ता है
ऐरों ग़ैरों का एहसान उठाना पड़ता है

टेढ़े-मेढ़े रस्तों पर भी ख़्वाबों का पश्तारा
तेरी ख़ातिर मेरी जान उठाना पड़ता है

कब सुनता है नाला कोई शोर-शराबे में
मजबूरी में भी तूफ़ान उठाना पड़ता है

कैसी हवाएँ चलने लगी हैं मेरे बाग़ों में
फूलों को भी अब सामान उठाना पड़ता है

गुल-दस्ते की ख़्वाहिश रखने वालों को अक्सर
कोई ख़ार भरा गुल-दान उठाना पड़ता है

याँ कोई तफ़रीक़ नहीं है शाह गदा सब को
अपना बोझ दिल-ए-नादान उठाना पड़ता है

यूँ मायूस नहीं होते हैं कोई न कोई ग़म
अच्छे अच्छों को हर आन उठाना पड़ता है

मक्कारों की इस दुनिया में कभी कभी 'आलम'
अच्छे लोगों को बोहतान उठाना पड़ता है