थपक थपक के जिन्हें हम सुलाते रहते हैं
वो ख़्वाब हम को हमेशा जगाते रहते हैं
उमीदें जागती रहती हैं सोती रहती हैं
दरीचे शम्अ जलाते बुझाते रहते हैं
न जाने किस का हमें इंतिज़ार रहता है
कि बाम-ओ-दर को हमेशा सजाते रहते हैं
किसी को ढूँडते हैं हम किसी के पैकर में
किसी का चेहरा किसी से मिलाते रहते हैं
वो नक़्श-ए-ख़्वाब मुकम्मल कभी नहीं होता
तमाम उम्र जिसे हम बनाते रहते हैं
उसी का अक्स हर इक रंग में झलकता है
वो एक दर्द जिसे सब छुपाते रहते हैं
हमें ख़बर है कभी लौट कर न आएँगे
गए दिनों को मगर हम बुलाते रहते हैं
ये खेल सिर्फ़ तुम्हीं खेलते नहीं 'आलम'
सभी ख़ला में लकीरें बनाते रहते हैं
ग़ज़ल
थपक थपक के जिन्हें हम सुलाते रहते हैं
आलम ख़ुर्शीद