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वो कम-नसीब जो अहद-ए-जफ़ा में रहते हैं | शाही शायरी
wo kam-nasib jo ahd-e-jafa mein rahte hain

ग़ज़ल

वो कम-नसीब जो अहद-ए-जफ़ा में रहते हैं

अख़्तर ज़ियाई

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वो कम-नसीब जो अहद-ए-जफ़ा में रहते हैं
अजीब मअरिज़-ए-कर्ब-ओ-बला में रहते हैं

नुमूद-ए-ज़ौक़ ओ बुलूग़-ए-हुनर का ज़िक्र ही क्या
यहाँ ये लोग तो आह-ओ-बुका में रहते हैं

विदा-ए-ख़ुल्द के ब'अद अर्सा-ए-फ़िराक़ में हैं
ब-क़ैद-ए-जिस्म दयार-ए-फ़ना में रहते हैं

वो सुब्ह ओ शाम मिरी रूह में हैं जल्वा-नुमा
दिल-ए-फ़िगार ओ अलम-आश्ना में रहते हैं

हिसार-ए-ज़ात में महबूस हो के अहल-ए-हवस
फ़रेब-ए-हासिल-ए-बे-मुद्दआ में रहते हैं

भुला चुके हैं ज़मीन ओ ज़माँ के सब क़िस्से
सुख़न-तराज़ हैं लेकिन ख़ला में रहते हैं

अमीर-ए-शहर की सोहबत के फ़ैज़ से 'अख़्तर'
जनाब-ए-शैख़ अब ऊँची हवा में रहते हैं