ज़िंदगी कितनी मसर्रत से गुज़रती या रब
ऐश की तरह अगर ग़म भी गवारा होता
अख़्तर शीरानी
अब तो हाथों से लकीरें भी मिटी जाती हैं
उस को खो कर तो मिरे पास रहा कुछ भी नहीं
अख्तर शुमार
अभी सफ़र में कोई मोड़ ही नहीं आया
निकल गया है ये चुप-चाप दास्तान से कौन
अख्तर शुमार
मैं घर को फूँक रहा था बड़े यक़ीन के साथ
कि तेरी राह में पहला क़दम उठाना था
अख्तर शुमार
मैं तो इस वास्ते चुप हूँ कि तमाशा न बने
तू समझता है मुझे तुझ से गिला कुछ भी नहीं
अख्तर शुमार
मैं ज़िंदगी के सफ़र में था मश्ग़ला उस का
वो ढूँड ढूँड के मुझ को गँवा दिया करता
अख्तर शुमार
मेरी रुस्वाई अगर साथ न देती मेरा
यूँ सर-ए-बज़्म मैं इज़्ज़त से निकलता कैसे
अख्तर शुमार