थक गए हम करते करते इंतिज़ार
इक क़यामत उन का आना हो गया
अख़्तर शीरानी
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उम्र भर की तल्ख़ बेदारी का सामाँ हो गईं
हाए वो रातें कि जो ख़्वाब-ए-परेशाँ हो गईं
अख़्तर शीरानी
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उन रस भरी आँखों में हया खेल रही है
दो ज़हर के प्यालों में क़ज़ा खेल रही है
अख़्तर शीरानी
उस के अहद-ए-शबाब में जीना
जीने वालो तुम्हें हुआ क्या है
अख़्तर शीरानी
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उठते नहीं हैं अब तो दुआ के लिए भी हाथ
किस दर्जा ना-उमीद हैं परवरदिगार से
अख़्तर शीरानी
वो अगर आ न सके मौत ही आई होती
हिज्र में कोई तो ग़म-ख़्वार हमारा होता
अख़्तर शीरानी
याद आओ मुझे लिल्लाह न तुम याद करो
मेरी और अपनी जवानी को न बर्बाद करो
अख़्तर शीरानी