अक़्ल को क्यूँ बताएँ इश्क़ का राज़
ग़ैर को राज़-दाँ नहीं करते
तिलोकचंद महरूम
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बाद-ए-तर्क-ए-आरज़ू बैठा हूँ कैसा मुतमइन
हो गई आसाँ हर इक मुश्किल ब-आसानी मिरी
तिलोकचंद महरूम
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| आरजू |
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ब-ज़ाहिर गर्म है बाज़ार-ए-उल्फ़त
मगर जिंस-ए-वफ़ा कम हो गई है
तिलोकचंद महरूम
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ब-ज़ाहिर गर्म है बाज़ार-ए-उल्फ़त
मगर जिंस-ए-वफ़ा कम हो गई है
तिलोकचंद महरूम
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बुरा हो उल्फ़त-ए-ख़ूबाँ का हम-नशीं हम तो
शबाब ही में बुरा अपना हाल कर बैठे
तिलोकचंद महरूम
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दाम-ए-ग़म-ए-हयात में उलझा गई उमीद
हम ये समझ रहे थे कि एहसान कर गई
तिलोकचंद महरूम
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दाम-ए-ग़म-ए-हयात में उलझा गई उमीद
हम ये समझ रहे थे कि एहसान कर गई
तिलोकचंद महरूम
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