ख़ुदा से वक़्त-ए-दुआ हम सवाल कर बैठे
वो बुत भी दिल को ज़रा अब संभाल कर बैठे
किया है आँख की गर्दिश से पीस कर सुर्मा
वो बे-चले ही मुझे पाएमाल कर बैठे
तमाम उम्र परेशाँ रखा दम-ए-आख़िर
बला से मेरी परेशाँ वो बाल कर बैठे
चले हैं तूर को मूसा मगर हमें मतलब
कि हम बुतों ही में ये देख-भाल कर बैठे
रवाँ हैं अश्क किसी के फ़िराक़ में या रब
कोई न पुर्सिश-ए-वजह-ए-मलाल कर बैठे
बुरा हो उल्फ़त-ए-ख़ूबाँ का हम-नशीं हम तो
शबाब ही में बुरा अपना हाल कर बैठे
न इल्म है न ज़बाँ है तो किस लिए 'महरूम'
तुम अपने आप को शाइर ख़याल कर बैठे
ग़ज़ल
ख़ुदा से वक़्त-ए-दुआ हम सवाल कर बैठे
तिलोकचंद महरूम